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वृषभसेना की कहानी

काबेरी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । उसकी लड़की का नाम नागश्री था । वह जैन मन्दिर में झाड़ने बुहारने का काम किया करती थी ।

एक दिन संध्या के समय मन्दिर में मुनिदत्त मुनि ध्यान कर रहे थे कि नागश्री झाड़ने आई । झाड़ते-झाड़ते मुनिराज के पास पहुंॅची । नागश्री ने मुनिराज से कहा कि आप यहां से उठिये मुझे यहां झाड़ना है । मुनिराज ध्यान पूरा हुए बिना उठ नहीं सकते थे, इसलिये नहीं उठे और ज्यों के त्यों बैठे रहे । नागश्री के कई बार कहने पर भी जब मुनिराज नहीं उठे तो उसने क्रोध में आकर उन्हें बहुत सी गालियां सुनाईं और सब जगह का कूड़ा इकट्ठा कर मुनिराज के ऊपर डाल दिया, जिससे वे बिलकुल दब गये । मू,र्ख नागश्री द्वारा ऐसा कठिन उपद्रव होने पर भी मुनिराज अपने ध्यान से बिलकुल नहीं डिगे तथा और भी अधिक ध्यान में लीन हो गये । सबेरा होने पर जब राजा मन्दिर को गये और मुनि की सांस चलने से वह कचरे का ढेर उन्हें हिलता हुआ दिखाई दिया तब उन्होनें उसी समय कचरे को हटवाया, तो वे धीर-वीर मुनिराज बाहर निकल आये । राजा ने मुनि के चरणों की पूजा की और चले गये । नागश्री भी उसी समय मुनिराज के पास गई तो उन्हें पहिले ही के समान शान्तचित्त देखा । इससे नागश्री के चित्त में मुनिराज के प्रति बड़ी श्रृद्धा उत्पन्न हुई । वह अपनी मूर्खता पर बहुत पछताई और मुनिराज से अपने अपराध की क्षमा मांगी । उसने मुनिराज का कष्ट दूर करने के लिये भांति - भांति की दवाइयां कीं और खूब सेवा कर मुनिराज को स्वस्थ कर दिया ।

आयु पूरी होने पर नागश्री ने शरीर छोड़ा, तो औषधिदान के प्रभाव से वह उस नगर के धनपति सेठ की पुत्री हुई । सेठानी ने उसका नाम वृषभसेना रखा । वह बड़ी रूपवती और भाग्यवती थी ।

एक दिन वृषभसेना को उसकी दासी रूपवती स्नान करा रही थी । स्नान कराने से जो पानी गिरता था वह बह कर पास ही के एक गड्ढे में भरता जा रहा था । अकस्मात् ही एक रोगी कुत्ता वहां आया और उस गड्ढे में गिर पड़ा । थोड़ी देर के बाद जब वह कुत्ता गड्ढे से निकला तो बिलकुल निरोगी हो गया । कुत्ते की यह हालत देख कर रूपवती दासी को बड़ा अचरज हुआ । वृषभसेना के स्नान जल से ऐसा हुआ जान वह थोड़ा सा पानी अपने घर ले गई और अपनी माता की आंखों में लगाया । रूपवती की माता की आंखे कई वर्षों से बिगड़ी थीं, यह पानी लगाते ही आंखे निरोग हो गयीं और उन्हें अच्छी तरह दिखने लगा । जब यह बात शहर में फैल गई तो सब प्रकार के रोगी रूपवती के यहां आने लगे और आराम पाने लगे ।

उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे । उन्होनें अपने मंत्री रणपिंगल को अपने शत्रु राजा मेघपिंगल से लड़ने को भेजा । राजा मेघपिंगल को जब अपनी जीत दिखाई नहीं दी तो जिन कुओं का पानी रणपिंगल की सेना के पीने के काम आता था, उनमें मेघपिंगल ने विष डलवा दिया । जिससे बहुत से सिपाही तो मर गये और बहुत से बीमार हो गये । तब रणपिंगल को बची हुई सेना लेकर वापस आना पड़ा । वहां आने पर वृषभसेना के स्नान के जल से सबको आराम हो गया ।

जब उग्रसेन को राजा मेघपिंगल की ढिठाई मालूम हुई तब वे खुद ही सेना लेकर राजा मेघपिंगल से लड़ाई करने गये पर मेघपिंगल ने फिर भी वैसा ही किया जिससे राजा उग्रसेन और उनकी सब सेना की तबियत बिगड़ गई तब उन्हे भी लाचार होकर लौट आना पड़ा । राजधानी में आने पर राजा ने मंत्री की सलाह से वृषभसेना के स्नान का जल मंगवाया । वृषभसेना के पिता धनपति सेठ के यहां जब राजा के नौकर जल मांगने गये तो सेठानी ने अपने पति से कहा कि हे स्वामिन्, अपनी बेटी के स्नान का जल राजा के ऊपर छिड़का जावे यह तो ठीक नहीं जॅंचता । सेठ ने उत्तर दिया कि हे प्रिये । अपने को राजा से कुछ छल नहीं करना है । सब सच्चा हाल सुना दिया जावेगा ।

धनपति सेठ ने रूपवती दासी के द्वारा वृषभसेना के स्नान का जल राजा के पास भेज दिया । रूपवती ने पहले ही राजा को विदित करा दिया कि यह वृषभसेना के स्नान का जल है, फिर राजा के माथे पर छिड़का। जिससे उन्हेें भी तुरन्त आराम हो गया ।

राजा उग्रसेन को जब वृषभसेना की ऐसी महिमा मालूम हुई तो उन्होनें धनपति सेठ को अपने पास बुलाया और कहा कि आप अपनी लड़की का विवाह मेरे साथ कर दें ।

सेठ जी ने उत्तर दिया कि हे महाराज हमारे समान तुच्छ मनुष्य के साथ आप नाता करना चाहते हैं यह हमारे सौभाग्य की बात है । वृषभसेना व्याह के योग्य भी हो गई है आपके साथ उसका विवाह करने को मैं तैयार हूॅं । परन्तु मुझे यह कहना है कि आपको आष्टाह्निका के दिनों में जिनेन्द्र भगवान की पूजा बड़े साजबाज से कराना पड़ेगी और जो पशु पक्षी पिंजरों में बंद हैं, तथा जो कैदी जेलखानों में हैं, उन्हें छोड़ देना पड़ेगा ।

राजा उग्रसेन ने सेठ की ये सब बातें मान लीं और वृषभसेना से विवाह कर लिया । उसे पटरानी बना कर सुख से रहने लगे । परन्तु वृषभसेना संसार के सुखों में ही नहीं भूल गई । वह भगवान की पूजा, स्वाध्याय, शील संयम, पात्रदान आदि में सदा तत्पर रहती थी ।

राजा उग्रसेन ने सेठ धनपति को दिये हुये वचन पर सब पशु पक्षियों और कैदियों को तो छोड़ दिया परन्तु बनारस के राजा पृथ्वी चन्द्र को नहीं छोड़ा क्योंकि वह बहुत दुष्ट था ।

राजा पृथ्वीचन्द्र की रानी नारायणदत्ता बनारस में रहती थी उसे बड़ा भरोसा था कि इस समय मेरे पति अवश्य छूट जावेगें परन्तु जब ऐसा नहीं हुआ तो उसने बनारस में वृषभसेना के नाम से कई दानशालाएं बनवाईं और इसलिये बनवाईं कि जिससे रानी वृषभसेना को बनारस का हाल मालूम होवे और उन्हें यह भी मालूम होवे कि महाराज ने मेरे पति को अब तक नहीं छोड़ा है ।

उन दानशालाओं में हर किसी मनुष्य को बढि़या से बढि़या भोजन कराये जाते थे । इससे उन दानशालाओं का नाम बहुत बढ़ गया था । कावेरी के कई ब्राह्मण बनारस गये और दानशालाओं में भोजन किया तो उनकी बढ़ाई करते हुये आये । जब रूपवती दासी को मालूम हुआ कि बनारस में वृषभसेना के नाम की दानशालाएं हैं तो उसने वृषभसेना से कहा कि तुमने बनारस में दानशालाएण्ं बनवाईं और मुझे मालूम भी नहीं हुआ ? वृषभसेना ने उत्तर दिया कि मैनें बनारस में कोई दानशाला नहीं खुलवाई है । तब रूपवती ने बनारस में नौकर भेजे तथा दानशालाओं का सच्चा पता लगाया ।

जब रूपवती को मालूम हुआ कि नारायणदत्ता ने अपने पति का छुटकारा कराने के लिये यह उपाय रचा है तब उसने महारानी वृषभसेना को उसका हाल सुनाया और वृषभसेना ने राजा उग्रसेन से विनय कर राजा पृथ्वीचन्द्र को छुड़वा दिया ।

राजा पृथ्वीचन्द्र ने रानी वृषभसेना का बड़ा उपकार माना उसने अपनी श्रृद्धा दिखाने के लिये राजा उग्रसेन और रानी वृषभसेना का चित्र बनवाया तथा उन दोनों के चरणों में मस्तक रखे हुये अपना चित्र बनवाया और वह चित्र राजा रानी को भेंट देकर कहा कि मैं आप लोगों की कृपा को जीवनभर नहीं भूल सकता हूं राजा उग्रसेन पृथ्वीचन्द्र की विनय से बहुत प्रसन्न हुये ।

जैसा पहले लिखा गया है कि राजा मेघपिंगल राजा उग्रसेन का शत्रु था । वह मेघपिंगल राजा पृथ्वीचन्द्र से बहुत डरता था जब राजा पृथ्वी चन्द्र राजा उग्रसेन के सेवक बन गये तो मेघपिंगल भी काबेरी आकर उग्रसेन का दास बन गया ।

एक दिन राजा उग्रसेन के पास दूसरे छोटे राजाओं के यहां से बहुत सा धन, सामान और बढि़या दुशाले भेंट में आये । राजा ने उसमें का आधा धन, सामान और एक दुशाला तो रानी वृषभसेना को दे दिया और आधा धन सामान और एक दुशाला राजा मेघपिंगल को सौंप दिया ।

एक दिन मेघपिंगल की रानी वह भेंट का दुशाला ओढ़ कर वृषभसेना के महलों को गई । कपड़े पहनने उतारने में वे दुशाले आपस में भूल से बदल गये । अर्थात् रानी वृषभसेना का दुशाला मेघपिंगल की रानी के वहां चला गया और मेघपिंगल की रानी का दुशाला रानी वृषभसेना के पास रह गया ।

कुछ दिनों के बाद राजा मेघपिंगल,राजा उग्रसेन से मिलने को गये, तो वही बदला हुआ दुशाला ओढ़े चले गये । उस दुशाले को ओढ़े हुये देख कर राजा उग्रसेन को कुछ सन्देह हो गया । उनके चेहरे पर क्रोध झलकने लगा । उन्हें यह आशंका हुई कि मेघपिंगल वृषभसेना से यारी रखता है । जब मेघपिंगल ने राजा को क्रोधित देखा तो उसने वहां रहना ठीक नहीं समझा और दूसरे देश को चल दिया ।

जब राजा उग्रसेन को मालूम हुआ कि मेघपिंगल भाग गया है , तब तो उसका सन्देह और भी बढ़ गया । उन्होनंें राजा मेघपिंगल को पकड़ लाने को सबार दौड़ाये और आप रानी वृषभसेना के महल में गये । जब रानी के पास मेघपिंगल वाला दुशाला पाया तब तो राजा को पक्का सन्देह हो गया । उनके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा । राजा ने तुरन्त ही रानी वृषभसेना को समुद्र में ढकेल देने की आज्ञा दे दी ।

ऐसे क्रोध को धिक्कार है जिसके कारण भले बुरे का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता । जीव बड़ी बड़ी गलतियां कर बैठता है । सचमुच ही क्रोध एक प्रकार की शराब है जिसके पीने से मनुष्य को कुछ सुध-बुध नहीं रहती ।

राजा की आज्ञा से महारानी वृषभसेना समुद्र में तो फेंक दी गयीं परन्तु ऐसा करने से उस शीलवती की बिलकुल हानि नहीं हुई । वह अपने सत्यशील पर विश्वास रख कर भगवान का ध्यान करने लगीं । उसने यह प्रतिज्ञा ले ली कि यदि इस संकट से छूटॅंूगी और शरीर में प्राण रहेगें तो जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूॅंगी ।

समुद्र में ढकेलते ही रानी वृषभसेना के पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग के देव दौड़े आये । समुद्र में ही सिंहासन रचकर उस पर वृषभसेना को विराजमान किया और बड़ी भक्तिसहित जय जय शब्द किया । जब राजा ने यह हाल सुना तो वे अपनी मूर्खता पर बहुत पछताये । वे रानी वृषभसेना के पास आये और अपनी भूल क्षमा कराई ।

पुण्य के उदय से रानी वृषभसेना को श्रीगुणधर मुनि के दर्शन हुए । वे मुनि महान तपस्वी और अवधिज्ञानी थे । वृषभसेना मुनिराज के चरणों में लेट गई और हाथ जोड़ कर पूंछने लगी कि हे महाराज मैनें पिछले जन्म में कैसे काम किये थे जिनका ऐसा फल मिला ।

तब मुनिराज ने उसे नागश्री के भव का सब हाल सुनाया और कहा कि मुनि को औषधि देने और उनकी सेवा करने से तूने सुन्दर और सर्व औषधिमय शरीर पाया है । मुनि की निन्दा करने से तुझे झूठा कलंक लगा है तथा उनके ऊपर कूड़ा कचरा डालने से तू समुद्र में पटकी गई है ।

वृषभसेना दीक्षा लेने का विचार तो कर ही चुकी थी ऐसे में मुनिराज के वचन सुनकर उसका वैराग्य और भी बढ़ गया । अपने पति के बहुत समझाने पर भी वह घर नहीं गई । उसने क्षमा मांगकर गुणधर मुनि के पास दीक्षा ले ली और खूब तप किया । अन्त में समाधिपूर्वक मरण कर स्वर्ग में देव हुईं ।

औषधिदान के प्रभाव से नागश्री ने वृषभसेना के भव में औषधि ऋद्धिमय शरीर पाया । उसके स्नान का जल राजा के मस्तक पर डाला गया जो राजा के रोग की निवृत्ति में कारण हुआ ।

सारांश - इस कथा से निष्कर्ष निकलता है कि जो मनुष्य बहुधा रोगी रहा करते हैं, उन्होनें कभी औषधिदान में विघ्न डाला होगा । इसलिये हमें अपनी शक्ति के अनुसार औषधिदान देना चाहिये और रोगियों की सहायता करनी चाहिये तथा उनकी सेवा करनी चाहिये ।


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